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शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008


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वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्‌।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥३॥


भावार्थ:- ए स्लोक में गोसाईं तुलसीदासजी भगवान संकर के बंदना करताने। अपनी ए बंदना में उ कहताने की हम बोधमय (ग्यान से भरल), नित (जेकर कबो नास ना होला यानि अबिनासी) संकर भगवान जइसन गुरु के बंदना करतानीं। जेकरी खाली आस्रय में चली गईले से टेढ़ चाँद भी हर जगह पूजनीय हो जाने।

इहाँ गोसाईंजी की कहले के मतलब इ बा की भगवान संकर एगो सच्चा गुरु की तरे सदा अपनी चेलन पर आपन नेह बनवले रहेने अउरी हरदम अच्छा राह देखावेने। भगवान संकर पर जे आपन सबकुछ छोड़ी देला ओकर सदा खातिर कल्यान हो जाला। जे उनकरी सरन में चली गइल उहो बढ़ाई के पात्र हो जाला चाहें ओकरी में लाखगो बुराई काहें नाहीं होखे।

जय जय राम, जय हनुमान।
-प्रभाकर पाण्डेय

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